CHEEKH - An Unbearable pain




काली स्याही जैसी रात में जब
तूफ़ान समंदर में उठते हैं |
सन्नाटे की कोख़ से अक्सर
ज़ुर्म जन्म लिया करते हैं ||

उसी शहर की जान भी तब
मुर्दो की तरह सो जाते हैं |
तभी कहीं दूर से किसी मासूम की
चीख़ सिमट कर आती हैं ||

अचानक खुली आँख तब मेरी
थोड़ा सा घबराया था |
दरवाज़े की दर्रों से देखा तो
वो रोयी और सताई थी ||

उन हैवानो की हैवानियत तो देखो
उस मासूम की बाल पकड़ घसीट कर लाया था |
हुनर तो था उस क़ातिल में
जो जिस्म छल्ली कर रूह का क़त्ल कर आया था ||

सिसकती आवाज़ भी उसकी सन्नाटों में गूँज रही थी
निकलती हुई चीख़ हर उसकी दर्द बता रही थी |
मुर्दों की बस्ती में देखो उस क़ातिल पर कुत्ते भोंक रहे थे
पर उस शहर की जान तो देखो मुर्दे बनकर सो रहे थे ||

जिस्म भी लूटा, आबरू भी लूटी
सब कुछ लूटा, इन्सानियत भी लूटी |
वो ज़मीन पर लेटी मिट्टी से अपना जिस्म छुपाई थी
बहुत चीख़ -चीख़ कर उसने इंसानों को आवाज़ लगाई थी ||

इस कलयुग में काल को भी अब शर्म आ जाती है
जहाँ हर रोज़ जब बेटियाँ पल-पल रेती जाती है ||

बस बहुत हुआ !अब उन जल्लादों के विरुद्ध कर्मयुद्ध होगा |
 जहाँ इंसाफ के मैदान में हर रावण का दहन होगा ||

                                                                              - आशीष (@new_poet_on_earth)